Monday 2 May 2016

" मेरे नए- पुराने पन्नों से "   सीरीज़ के तहत अपनी किताब    "लड़कियाँ जो पुल होती हैं " से उद्धृत और  साथ ही अपनी नई कविताएं साझा करने की कोशिश करती रहूँगी।  शायद इसके आस पास हमेशा कोई न कोई सुरों का दरिया ज़रूर बहता सुनाई दे.. .. 
मेरी अन्तरात्मा में हमेशा से ही शब्द और सुर साथ साथ बहते ही रहते हैं।  बिना संगीत के कैसे जिया जाता है , मुझे नहीं मालूम ! 


मेरे नए पुराने पन्नों से 


पुराने पन्नों से  
संकलन "लड़कियाँ जो पुल  होती हैं " से उद्धृत।
२००३ में लिखी गई कविता। 

(१)
ऐसा तब होता है 

ऐसा कब होता है 
जब छोटी - छोटी खुशियों में 
बड़ी - बड़ी खुशियाँ ढूंढते हैं हम ? 
ऊँघती सी लगती ज़िन्दगी में 
ख़ुश होने के बहाने खोजते हैं हम?
अपनों को दिल के इतना पास 
बिठाते हैं 
कि पराया कर सकें हम?  
सच्चाई कुछ इस तरह छिपाते हैं 
कि झूठ से बच सकें हम 

ऐसा कब होता है 
जब एहसास के एहसास भी 
डरने लगते हैं 
फिर भी 
महसूस करने के लिए तड़पते हैं हम
अपनों और परायों को 
परिस्थितियों की स्याही से उकेरते हैं 
फिर 
रिश्तों की गहराई को सहेजते हैं हम !

इतना कुछ ऐसा 
तभी होता है,
जब 
हम ज़िन्दगी पूरी जी लेना चाहते हैं 
हर रंग में 
डूब जाना चाहते हैं हम 

जब हम पीठ दिखाकर 
नहीं भागना चाहते 
हर भाव में 
बह जाना चाहते हैं हम ! 

जब हम सब कुछ 
अच्छा या बुरा 
भोगना चाहते हैं
हर आत्मा के दुःख - सुख में 
उतरना चाहते हैं हम !


ऐसा कब होता है ? 
जब रिश्तों में उखड़ते विश्वास को 
बचाए रखना चाहते हैं 
हर उस उखड़ते विश्वास के 
दर्द को झुठलाना चाहते हैं हम ? 

ऐसा तभी होता है 
जब हम 
अकेले रहना नहीं चाहते 
हर दोस्ती ,
हर रिश्ते को 
जगह देना चाहते हैं हम 
सबको 
अपना बना लेना चाहते हैं हम !
                             
                           - संवेदना
                             २००३ 

                         
                     




नए पन्नों से 

२२ अप्रैल ' २०१६ 


(२)

थोड़े -थोड़े हम  
पूरे -पूरे तुम !


बहुत से शोरग़ुल की 
बहुत सी आवाज़ें 
चीखें -पुकारें 
टकराहटें 
उम्मीदें 
अचानक जब हो जाती हैं 
मौन 
तो सुनाई देने लगती है 
एक चुप आवाज़ 
जैसे स्थिर पानी 
उसमें रुका हुआ 
कोई प्रतिबिम्ब 
चुपचाप खड़ा घूरता दरख़्त 
छनती सी 
हलकी पीली - धूप 
ज़मीन पर पड़े चुपचाप 
थोड़े भारी से होते नम पत्ते 
छिपता - छिपाता सा 
निकलता इंद्रधनुष 
बहता सा आसमान 
कुछ नीला 
पर ज़्यादा सुफैद 
दो छोटे ताज़े खिले 
लाल फूलों पर पड़ी 
सुनहरी ओस की बूँदें 
कत्थई हवा 
गहराती और गहराती 
फिर अचानक 
इसमें से निकल आते 
दो तांबई चेहरे 
दो आकृतियाँ 
आसमान के कोने से 
एक छोटा सुराख़ बनाकर 
हाथ पकड़े 
निकलने लगतीं 
आसमान से परे ........... 
गुनगुनाती 
दो मद्धम मद्धम आवाज़ें 

थोड़े - थोड़े हम 
पूरे - पूरे तुम
थोड़े - थोड़े  हम 
पूरे - पूरे तुम ........ !! 


                              - संवेदना
                                २२ अप्रैल ' २०१६

                                 
 



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